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Tuesday, June 20, 2023

मजेदार सफर

 यह कहानी उस जमाने की है जब मोबाइल फोन या इंटरनेट का पदार्पण हिंदुस्तान में नहीं हुआ था। तब ट्रेन का रिजर्व टिकट कटवाने के लिए रेलवे स्टेशन पर जाना पड़ता था। लेकिन इसके बावजूद कभी ऐसा नहीं होता था कि चार महीने पहले कटवाने पर भी वेटिंग टिकट ही मिले। लंबी दूरी की रेलगाड़ियों में बहुत से बहुत पंद्रह दिन पहले टिकट कटाने से रिजर्वेशन मिल जाता था। मोबाइल फोन ना होने एक बावजूद लोगों में आपसी तालमेल इतना अच्छा होता था कि जिस टीम के अलग-अलग सदस्य अलग-अलग शहरों में रहते थे वे भी एक दूसरे तक संदेश पहुँचा देते थे और तय समय के मुताबिक जिस जगह पर मिलना होता था उस जगह पर समय से पहले पहुँच जाते थे। तब तक लैंडलाइन टेलिफोनों की संख्या ठीक ठाक हो चुकी थी और लोग पीसीओ या फिर किसी पड़ोसी के फोन का इस्तेमाल करके जरूरी बातचीत कर लेते थे। ट्रेंनें तब भी उतनी ही देरी से चलती थीं, जितनी देरी से आज चला करती हैं लेकिन उस जमाने में वातानुकुलित दर्जे में या तो रईस लोग सफर करते थे या फिर वो जिनके टिकट के पैसे उनकी जेब से खर्च नहीं होते थे। आज की तरह नहीं कि जिसे देखो एसी में ही सफर कर रहा है। मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव या एमआर ऐसे लोगों में से थे जो रईस न होते हुए भी वातानुकूलित दर्जे में यात्रा का आनंद उठा पाते थे। हालाँकि दवा बनाने वाली ज्यादातर अच्छी कम्पनियाँ अपने सेल्स स्टाफ को वातानुकूलित दर्जे में सफर की सुविधा प्रदान करती थीं लेकिन उस सुविधा का उपभोग करने वालों की संख्या काफी कम होती थी। इसके कई कारण थे लेकिन उन कारणों की चर्चा करना इस कहानी के विषय वस्तु से परे है।

वह टीम कई मायनों में अनूठी टीम थी और उस टीम के सदस्यों के बीच जो कमाल का तालमेल था वह उनके आपसी झगड़ों में भी नजर आता था। वह टीम नौ लोगों से बनी थी जिनमें एक एरिया मैनेजर था और बाकी लोग मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव यानि एमआर थे। मैनेजर साहब की पोस्टिंग फैजाबाद में थी, जो लखनऊ से सवा सौ किलोमीटर दूर है। बाकी के सात लोगों में से एक बंदा फैजाबाद में, दो गोंडा में, एक बहराइच में, एक, सुलतानपुर में, दो रायबरेली में और एक जौनपुर में था। साहब का नाम था निर्मल और बाकी लोगों के नाम थे अनिल (फैजाबाद), सुमित और पुतुल (गोंडा), विजय (बहराइच), जैकब (सुलतानपुर), खोकुन और संजीव (रायबरेली) और जहीर (जौनपुर)।

अक्सर एक शहर में किसी एक कम्पनी का एक ही एमआर रहता है इसलिए वह अपने आप को उतना ही बड़ा राजा समझता है जितना कि महारानी की मौत से पहले प्रिंस चार्ल्स अपने आप को समझते रहे होंगे। इसलिए अगर कोई एमआर किसी ऐसी कम्पनी में काम करता है जहाँ उसकी उम्मीद से बहुत ज्यादा तनख्वाह मिलती है तो फिर उसके अहम का अंदाजा आप आसानी से लगा सकते हैं। लेकिन दिन रात बाजार की खाक छानने के चक्कर में उसकी इतनी रगड़ाई हो चुकी होती है कि उसे यह भलीभाँति पता होता है कि कहाँ अपने डौले शौले दिखाने हैं और कहाँ दुम दबाकर रखना है।

एक बार की बात है, पूरी टीम को एक कॉन्फ्रेंस के सिलसिले में हैदराबाद जाना था। किसी नई दवाई को बाजार में उतारना था जिसके लिए उनकी ट्रेनिंग होनी थी। वह नई दवा दिल की बिमारी के लिए थी और शायद इसलिए कम्पनी के आला अधिकारियों ने बहुत सोच विचारकर उस दवा का मान रखा था दिल की बूटी। यह बात और है कि उनमें से सबकी रुचि ट्रेनिंग से ज्यादा इस बात में रहती थी कि कॉन्फ्रेंस में क्या क्या सुविधाएँ मिलेंगी, मसलन होटल कितना आलीशान होगा, लंच और डिनर का मेन्यू कैसा रहेगा, किस ब्रांड की शराब परोसी जाएगी, कम्पनी की तरफ से साइट सीइंग ट्रिप होगा या नहीं, वगैरह, वगैरह।

वे सभी लोग जिन जिन शहरों में पोस्टेड थे उनमें से किसी जगह से भी हैदराबाद के लिए कोई रेलगाड़ी नहीं चलती थी। एक शहर तो ऐसा भी था जहाँ से किसी भी महानगर के के लिए कोई ट्रेन नहीं चलती थी। इसलिए तय यह हुआ था कि सबलोग लखनऊ स्टेशन पर मिलेंगे और वहाँ से नई दिल्ली जाने वाली ट्रेन में सवारी करेंगे। नई दिल्ली के बाद हजरत निजामुद्दीन स्टेशन से उन्हें राजधानी एक्सप्रेस से हैदराबाद जाना था। टिकट कटाने की जिम्मेदारी टीम के कप्तान यानि निर्मल साहब की थी जो उन्होंने समय रहते पूरी कर ली थी।

पहले से जैसा तय हुआ था उस हिसाब से सब लोग ट्रेन के छूटने से काफी समय पहले लखनऊ के चारबाग स्टेशन पर पहुँचना शुरु हुए। जब सब लोग एक जगह इकट्ठा हुए तो निर्मल साहब ने पूछा, “हाँ भई, कैसी तैयारी है सबकी। बहुत अहम लॉन्च मीटिंग है। दिल की बिमारी की दवाओं का बाजार बहुत बड़ा है और हमारी कम्पनी पहली बार उस सेगमेंट में उतरने जा रही है। इसलिए इतना प्रेशर आने वाला है कि तुम्हारा ब्लड प्रेशर बढ़ जाएगा। समय बहुत कठिन होने वाला है। कमर कस के तैयार हो जाओ।“

साहब की बात सुनकर हर किसी ने अपनी अपनी तैयारी का बखान करना शुरु किया। विजय ने बताया कि उसने व्हिस्की की दस बोतलें, सोडा और डिस्पोजेबल ग्लास खरीद लिए थे। पुतुल ने बताया कि उसने चिप्स, नमकीन और दालमोठ के पैकेट भरपूर मात्रा में खरीद लिए थे। सुमित ने बताया कि उसकी बीबी ने पचास साठ पराठे बनाकर पैक कर दिए थे। अनिल ने बताया कि उसने इतना सारा गुश्तबा बनाकर पैक कर लिया था कि पूरे रास्ते किसी को कम नहीं पड़ने वाला था। जहीर ने बताया कि उसकी अम्मी ने रास्ते के लिए बड़ी से देग भर के बिरयानी दे दी थी। खोकुन ने बताया था कि उसके पास तली हुई मछलियाँ थीं। संजीव और जैकब ने हाथ खड़े कर दिए। कहने लगे कि उन्हें खिचड़ी भी पकानी नहीं आती थी इसलिए खाली हाथ चले आए थे।

यह सुनकर निर्मल साहब ने कहा था, “अबे, तुम्हारी तैयारियों को सुनकर लगता है कि लॉन्च मीटिंग की बजाय किसी बारात में जा रहे हो जहाँ खाना खिलाने का ठेका तुम सबको मिला है। तैयारी से मेरा मतलब था ठीक से पढ़ाई की या नहीं, मार्केट सर्वे किया या नहीं और तुम लोग बस पिकनिक की बातें कर रहे हो। मुझे तुम सबका भविष्य साफ साफ दिख रहा है। छोड़ूँगा नहीं किसी को।“

इस तरह बातचीत में समय बीत गया और फिर उनकी ट्रेन आकर प्लेटफॉर्म पर लग गई। ट्रेन में बैठते ही सबने एक बर्थ पर गिलासें सजाई, पेग बनाए और चखने में खाने की चीजें निकाली और अपनी महफिल रंगीन करने में मशगूल हो गए। सेकंड एसी कोच के एक सेक्शन में कुल छ: बर्थ होते हैं तो इस तरह से डेढ़ सेक्शन पर उनका कब्जा था। जहीर और जैकब शराब जैसी मादक चीजों की लत से कोसों दूर रहते थे इसलिए उनके खाने की चीजों के प्लेट अलग किए गए और उन्हें दूसरे सेक्शन में भेज दिया गया। ट्रेन अभी कानपुर भी नहीं पहुँची होगी कि एक यात्री आया और उनसे कहने लगा, “आपलोग दिखने में तो पढ़े लिखे लगते हैं। आपको मालूम होना चाहिए कि ट्रेन में शराब पीना सख्त मना है। इससे सहयात्रियों को परेशानी होती है।“

उसकी बातें सुनकर खोकुन, संजीव और पुतुल जैसे नए रंगरूट थोड़ा घबराए लेकिन पुराने लोगों के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी क्योंकि उन्हें इस नौकरी में इतने दिन बीत चुके थे कि उनकी चमड़ी मोटी हो चुकी थी। निर्मल साहब ने उस आदमी से ऐसा सवाल पूछा जिसकी उसने सपने में भी उम्मीद न की होगी। निर्मल साहब ने कहा, “अरे भाई साहब क्यों नाराज होते हैं। आप बुरा ना मानें तो आपके लिए एक पेग बनाऊँ? अबे, अनिल देख क्या रहे हो? भाई साहब के लिए गिलास निकालो। हाँ भाई साहब, सोडे के साथ या पानी के साथ।“

उस आदमी की बाँछें खिल गईं और फिर वहीं बैठ कर उन लोगों का हमप्याला बन गया।

उनकी पार्टी देर रात तक चलती रही। जब कुछेक लोगों पर इतना नशा छा गया कि उनके आपे से बाहर होने का खतरा मंडराने लगा तो निर्मल साहब के आदेश पर दुकान बंद की गई और फिर सब लोग अपनी अपनी बर्थों पर सोने चले गए।

विजय को सुबह जल्दी जागने की आदत है। ट्रेन में तो वह और भी सबेरे जागता है क्योंकि उसका मानना है कि ट्रेन के टॉयलेट का तभी इस्तेमाल कर लेना चाहिए जब तक कि बाकी लोग जा जा कर उसे नर्क न बना दें। नित्य क्रिया से निबटने के बाद उसने अनिल को जगाया और बोला, “जरा खिड़की से देखकर बताओ कि हमलोग कहाँ तक पहुँचे हैं। मेरे लिए तो ये सब नए इलाके हैं, अभी तो ठीक से शहरों के नाम भी याद नहीं हुए हैं। पता नहीं क्यों, लेकिन मुझे आशंका हो रही है कि हमारी ट्रेन बहुत देरी से चल रही है।“

अनिल ने खिड़की से देखा तो कोहरे के कारण कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। उसके बाद वह गेट के पास आकर देखा तो बताया कि विजय का शक सही था। फिर उसने हर किसी को जगा दिया। ट्रेन इतनी देरी से चल रही थी कि हर किसी का नशा एक झटके में उतर गया। निर्मल साहब ने इधर उधर टटोलकर अपने तकिये के नीचे से चश्मा निकाला और उसे पहनने के बाद ऐसी राहत की साँस ली जैसे पूरी तरह से जाग चुके हों। निर्मल साहब ने कहा, “अब तो बड़ा भारी पंगा हो जाएगा। अभी हमलोग कानपुर से कुछ ही आगे आए हैं। मतलब नई दिल्ली पहुँचते पहुँचते दस ग्यारह तो बज ही जाएँगे। हजरत निजामुद्दीन से राजधानी एक्सप्रेस के छूटने का समय साढ़े सात बजे सुबह का है। अब तो ट्रेन भी छूट जाएगी और पैसे भी बरबाद हो जाएँगे।“

यह सुनकर बाकी के आठ लोग एक सुर से कहने लगे, “क्या बात करते हैं? ऐसे कैसे पैसे बरबाद हो जाएँगे? दिल्ली पहुँचकर टिकट कैंसिल करा देंगे तो थोड़ा बहुत काटकर बाकी के पैसे वापस मिल जाएँगे।“

निर्मल साहब का कहना था, “वो तो ठीक है, लेकिन अगर हैदराबाद समय पर नहीं पहुँचे तो मुसीबत हो जाएगी। आजकल जो नया एमडी बना है वह बहुत ही खुर्राट है। एक झटके में हम सबकी की नौकरी खा जाएगा। कुछ सोचना पड़ेगा।“

बाकी के आठ लोग एक सुर में गिड़गिड़ाने लगे, “हाँ हाँ, सोचिए। आप नहीं सोचेंगे तो फिर हमारे बारे में कौन सोचेगा? आप ही हमारे सब कुछ हैं। आप ही हमारे माई बाप हैं।“

निर्मल साहब ने सबको डाँटकर चुप कराया, “ठीक है, ठीक है। अब इतना भी झाड़ पर ना चढ़ाओ। ऐसा करते हैं कि हमलोग टुंडला उतर जाते हैं। मुझे लगता है कि सात बजे तक हमलोग टुंडला पहुँच जाएँगे। उसके बाद टुंडला से झाँसी चलते हैं। जरा टाइम टेबल में देखो कि राजधानी एक्सप्रेस झाँसी कितने बजे पहुँचती है। टुंडला से कोई ट्रेन मिली तो ठीक है, नहीं तो हम टैक्सी ले लेंगे।“

लेकिन टुंडला पहुँचते पहुँचते सुबह के आठ बज चुके थे इसलिए यह तय हुआ कि झाँसी जाने का कोई फायदा नहीं था और अब दिल्ली जाकर ही कोई रास्ता ढ़ूँढ़ना होगा। रास्ते में कई तरह के प्लान बनाए गए। किसी का कहना था कि नई दिल्ली से हैदराबाद के लिए जो भी सबसे पहली गाड़ी मिलेगी उसमें सवार हो जाएँगे। किसी ने कहा कि हैदराबाद के लिए दो टैक्सी बुक कर लेंगे। निर्मल साहब का कहना था कि दिल्ली से हैदराबाद जाने और दिल्ली से नोएडा जाने में बहुत अंतर होता है। दूरी इतनी है कि टैक्सी से जब तक पहुँचेंगे तब तक लॉन्च मीटिंग समाप्त हो चुकी होगी। उनका कहना था कि उतनी लंबी यात्रा के लिए साधारण डिब्बे में जाना बहुत ही दुश्वार होगा इसलिए ऐसे ही किसी ट्रेन में कैसे सवार हो सकते थे। उसके बाद यह तय हुआ कि दिल्ली से हैदराबाद के लिए हवाई जहाज सही रहेगा। उस जमाने में हवाई जहाज से यात्रा करना आज की तरह सस्ता नहीं था कि हर कोई ऐरा गैरा नत्थू खैरा किसी भी हवाई अड्डे से उड़ान भरने लगे। निर्मल साहब की सलाह के हिसाब से सबने हिसाब लगाना शुरु किया कि किसके पास कितने रुपए थे। हर कोई एक सप्ताह से कुछ अधिक की यात्रा पर निकला था और हर किसी को हैदराबाद में मोतियाँ खरीदनी थीं इसलिए हर किसी के पास प्रचुर मात्रा में कैश था। लेकिन जोड़ने पर मालूम हुआ कि उतना भी कैश नहीं था कि हर किसी का हवाई टिकट खरीदा जा सके। फिर निर्मल साहब ने एक और रास्ता सुझाया। उनका कहना था, “ऐसा करेंगे कि दिल्ली स्टेशन पर उतर के मैं और अनिल अपनी कम्पनी के रीजनल ऑफिस में जाएँगे और उनसे बात करेंगे कि हवाई जहाज के टिकट की व्यवस्था करा दें। मेरी हेड ऑफिस में अच्छी पकड़ है। एक फोन करूँगा तो मंजूरी मिल जाएगी।“

यह सब सुनने के बाद सुमित ने पान मसाले की पुड़िया फाड़ी, पान मसाला अपनी हथेली पर डाला, उसमें बड़े जतन से तम्बाकू मिलाया और फिर उस मिश्रण को अपने मुँह में डाल लिया। फिर कोई दो तीन मिनट तक जुगाली करने के बाद जब निकोटिन उसके दिमाग की नसों में गया तो उसने अपना गला साफ किया और बोला, “हम्म, रीजनल ऑफिस जाएँगे तो कोई नहीं मिलेगा। रीजनल मैनेजर तो अपनी सेक्रेटरी के साथ कब के हैदराबाद की फ्लाइट में सवार हो चुके होंगे।“

यह सुनकर सब एक साथ हँसने लगे और बेचारे निर्मल साहब चुपचाप उन्हें हँसते हुए देखने लगे।

कोई बारह साढ़े बारह बजे उनकी ट्रेन नई दिल्ली पहुँची। उसके बाद दो लोगों को सामान की रखवाली पर लगाकर बाकी लोग उस ओर दौड़ पड़े जिधर रिजर्वेशन काउंटर थे। उनमें से तीन लोगों में से एक एक आदमी अलग अलग काउंटर के सामने लाइन में खड़ा हो गया। यह तय हुआ कि जिसका नम्बर पहले आता वह टिकट कैंसल कराने का काम करवा लेता। एक काउंटर पर अनिल, एक पर खोकुन और एक पर संजीव को लाईन मे खड़ा कर दिया गया। पुतुल, विजय और सुमित वहाँ से थोड़ी दूर खड़े होकर निर्मल साहब से गप्पें लड़ा रहे थे। कोई आधे घंटे के बाद सुनील काउंटर की खिड़की तक पहुँच चुका था। खिड़की पर पहुँचने के कुछ ही सेकंड बाद वह चिल्ला चिल्ला कर सबको बुलाने लगा। पास पहुँचने पर बताया कि किसी ने उनके साथ ठगी कर ली थी। काउंटर क्लर्क ने कम्प्यूटर में देखकर बताया था कि उनका टिकट पहले ही कैंसल हो चुका था। अब सबके चेहरे ऐसे उतर चुके थे जैसे उनके घुटनों से जा लगेंगे। किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा कैसे हो सकता था। उस जमाने में ऑनलाइन रिजर्वेशन या ऑनलाइन कैंसिलेशन जैसी चिड़िया के बारे में किसी ने सुन भी नहीं रखा था।

अनिल अपने बालों को नोच रहा था। थोड़ी देर में उसने अपनी कमीज उतार दी क्योंकि कड़ाके की सर्दी में भी उसे गर्मी का अहसास हो रहा था। उसकी सफेद बनियान से बाहर निकलती हुई उसकी पतली पतली बाँहों पर मांस नाममात्र को ही था इसलिए वैसे में वह किसी बिजूके की तरह दिख रहा था जिसे खेतों में चिड़ियों को डराने के लिए रखते हैं। अनिल अब गुस्से में जोर जोर से बोल रहा था, “अरे, मैं दिल्ली वालों को अच्छी तरह जानता हूँ। कॉलेज की पढ़ाई मैंने यहीं से की है। पूरे मुल्क से एक से एक प्रतिभाशाली लोग यहीं पहुँचते हैं और अगर उनमें अच्छे लोग होते हैं तो कुछ महाठग भी होते हैं। मुझे पक्का यकीन है कि अंदर के लोगों ने ही हमारे पैसे गोल कर लिए हैं। लगता है अब घी निकालने के लिए अंगुली टेढ़ी करनी पड़ेगी।“

इतना कहकर अनिल चिल्लाया और उस हॉल के एक कोने में बने एक दरवाजे को धकियाते हुए भीतर घुस गया। उसके पीछे-पीछे उसके साथी भी अंदर घुस चुके थे। अनिल भीतर बैठे कर्मचारियों को एक से एक चुनिंदा गालियाँ दे रहा था। वह ऐसे नाटक कर रहा था जैसे सबकी धुनाई करके ही मानेगा। पीछे से विजय, सुमित और पुतुल ने उसे पकड़ रखा था जैसे उसे मारपीट करने से रोक रहे हों। भले ही वह पतला दुबला था लेकिन अनिल की छ: फीट से भी कुछ ज्यादा लंबाई को देखकर रिजर्वेशन वाले कर्मचारी घबराये हुए लग रहे थे। पहले तो वे कर्मचारी मानने को तैयार नहीं हो रहे थे लेकिन एक साथ इतने लोगों का रौद्ररूप देखकर उनके कदम पीछे हटने लगे। मौके की नजाकत देखकर निर्मल साहब आगे बढ़े और उनसे मोलभाव करने लगे। इस मामले में उनका कोई सानी नहीं था। यह बात उस समय भी सिद्ध हो गई जब उन्होंने प्रति टिकट पचास रुपए के भाव से उन्हें रिश्वत खिलाने की बात पर अपना काम करवा लिया और फिर अपने पैसे वापस ले लिए।

उसके बाद वे लोग हैदराबाद जाने वाली एक ट्रेन के लिए टिकट बुक कराने की प्रक्रिया में लग गए। बड़ी मुश्किल से उस ट्रेन में फर्स्ट क्लास में चार टिकट मिले। जाना जरूरी था इसलिए तय हुआ कि बाकी के पाँच लोग बिना टिकट यात्रा करेंगे। फर्स्ट क्लास के कोच के बर्थ बहुत चौड़े होते हैं इसलिए यह सोचा गया कि एक कूपे में सबलोग एक साथ काम चला लेंगे। जब काउंटर से वापस लौटने के बाद वे लोग बाकी के दो लोगों के पास पहुँचे तो सामान की रखवाली करने वाले जैकब और जहीर ने पूछा, “अगर बिना टिकट गए तो बहुत परेशानी होगी। यह तो गैर कानूनी है।“ 

यह सुनकर निर्मल साहब ने कहा, “आना फ्री, जाना फ्री, और पकड़े गए तो खाना फ्री।

यह सुनकर सबलोग एक साथ हँसने लगे।

उनकी हैदराबाद जाने वाली ट्रेन रात के नौ बजे हजरत निजामुद्दीन स्टेशन से छूटती थी। नई दिल्ली से किसी ईएमयू ट्रेन में बैठकर सबलोग हजरत निजामुद्दीन पहुँचे और फिर वहाँ से हैदराबाद जाने वाली गाड़ी में सवार हो गए।

उस टीम के ज्यादातर लोगों को डर सता रहा था कि अगर रास्ते में टिकट चेकर सख्त हुआ तो पता नहीं क्या होगा। अपने इलाके में बिना टिकट चलने के मौके कई बार आए थे। लेकिन उन रास्तों पर उनका इतना आना जाना होता था कि ज्यादातर टिकट चेकर से जान पहचान हो चुकी थी। कई बार जब फाइन भरने की नौबत आती थी तो तो भी ज्यादा दर्द नहीं होता था क्योंकि कम दूरी होने के कारण फाइन की राशि कम ही होती थी। हर महकमे में अच्छी खासी जान पहचान होने से यह भी भरोसा रहता था कि कहीं कोर्ट कचहरी का चक्कर लगाना पड़ जाए तो भी कोई परेशानी आने वाली नहीं थी। लेकिन अब जब वे लखनऊ से बहुत आगे और बल्कि दिल्ली से भी काफी आगे जा रहे थे तो उनके आत्माविश्वास में भारी कमी आ रही थी। जैसे जैसे उनकी रेलगाड़ी विंध्याचल की पहाड़ियों से आगे बढ़ती जा रही थी उनका डर भी बढ़ता जा रहा था। उधर उनके निर्मल साहब इत्मिनान से मदिरापान कर रहे थ और एक मोटे से उपन्यास में ऐसे खोए हुए थे जैसे उन्हें इन बातों की तनिक परवाह नहीं थी।

ग्वालियर के आसपास एक टिकट चेकर आया और उनका टिकट चेक करने की मंशा से उनकी बगल में आकर बैठ गया। निर्मल साहब ने कनखियों से उस टिकट चेकर की छाती पर लगे बैज को पढ़ लिया और बोले, “अरे माथुर साहब, बड़े दिनों के बाद दर्शन दिए। आप रेलवे कॉलोनी में रहते हैं ना। मैने एक नजर में पहचान लिया था। अबे, विजय देख क्या रहे हो? माथुर साहब के लिए पेग बनाओ।“

विजय ने फौरन अपने बॉस की आज्ञा का पालन किया और माथुर साहब के सामने व्हिस्की का एक पेग पेश किया। माथुर साहब थोड़ा सकुचाए लेकिन अपने आप को रोक नहीं सके और उसके हाथ से गिलास लिया, सबके साथ चीयर्स किया और शुरु हो गए। माथुर साहब ने जल्दी जल्दी दो पेग गटके और यह कहते हुए उनसे विदा लिया कि आगे भी टिकट चेक करने थे।

माथुर साहब के जाने के बाद सबलोग एक दूसरे को देखकर मुसकरा रहे थे। उधर माथुर साहब याद करने की कोशिश कर रहे थे कि उस टीम के कप्तान यानि निर्मल साहब से उसके पहले कब मिले थे। लेकिन उन्हें कुछ भी याद नहीं आ रहा था। अब माथुर साहब को कौन समझाता कि उनके बैज से उनके नाम का पता तो कोई भी कर सकता था। रेलवे में अगर कोई टिकट चेकर की नौकरी करता हो तो इस बात की प्रबल संभावना होती है कि वह रेलवे कॉलोनी में ही रहता होगा। कहाँ की रेलवे कॉलोनी, यह तो निर्मल साहब ने नहीं बताया था।

इसी तरह उस दो हजार किलोमीटर की यात्रा के दौरान माथुर साहब के बाद कोई जोगलेकर साहब आए और फिर कोई रेड्डी साहब आए। हर टिकट चेकर की वैसी ही खातिरदारी की गई जैसी माथुर साहब की हुई थी। ऐसे ही खाते पीते, उपन्यास पढ़ते, गप्पें मारते और ताश शतरंज खेलते हुए वे आठ एमआर और उनके बॉस हैदराबाद पहुँच गए।

हैदराबाद स्टेशन पहुँचने के बाद सबको इस बात की चिंता हो रही थी कि स्टेशन से बाहर कैसे निकलेंगे। चार लोगों को कोई डर नहीं था, लेकिन बाकी के पाँच लोगों को डर हो रहा था कि अगर स्टेशन के बाहर निकलने वाले गेट पर खड़े टिकट चेकर ने पकड़ लिया तो फिर सारी मेहनत पर पानी फिर जाएगा।

कहते हैं भगवान भी उसी की मदद करता है जो खुद हिम्मत करता है। हैदराबाद स्टेशन पर भगवान ने अपने दूत को उनकी कम्पनी के कर्मचारियों के रूप में भेज दिया था। जब भी सेल्स वालों की कोई बहुत बड़ी कॉन्फ्रेंस होती है तो उसके लिए ताम झाम की पूरी व्यवस्था होती है। उनका स्वागत ऐसे होता है जैसे लड़की वाले बारातियों का स्वागत करते हैं। हैदराबाद स्टेशन पर बाहर से आने वाले एमआर की आगवानी करने के लिए स्थानीय स्टाफों की पूरी पलटन को ड्यूटी पर लगा दिया गया था। एक आदमी सबसे आगे चल रहा था। उसने सूट बूट पहन रखे थे और उसके हाथ में एक बड़ा सा डंडा था जिसके ऊपर फहराते झंडे पर बड़े बड़े अक्षरों में लिखा था, “वेलकम टू दिल की बूटी।”

उसके पीछे पीछे निर्मल साहब एंड कम्पनी चल रही थी। सबके कपड़े लत्ते और महंगे महंगे सूटकेसों को देखकर कोई शक भी नहीं कर सकता था कि ऐसे लोग बिना टिकट यात्रा करने के बारे में कभी सोच भी सकते थे।

कोई भी टिकट चेकर इतने बाजे गाजे के साथ पूरी पलटन को आते हुए देखेगा तो भला उनके टिकट चेक करने का खयाल उसके मन में कैसे उठेगा।

इस तरह फैजाबाद के एरिया मैनेजर की वह टीम सकुशल उस होटल में पहुँच गई जहाँ उनके ठहरने का इंतजाम था।

 

 

Friday, January 20, 2023

शकीरा का क्रैनबेरी जैम

आज शकीरा बहुत जोश में थी क्योंकि आज वह जी भर कर शॉपिंग करने के मूड में थी। शुक्रवार को किसी त्योहार के कारण छुट्टी पड़ जाने से यह वीकेंड लम्बा चलने वाला था यानि तीन दिनों का। जी हाँ, पूरे तीन दिनों की छुट्टी मतलब शुक्र, शनि और रवि। ऐसे मौके हर साल थोड़े ही आते हैं। अगर मौसम सही होता तो पूरा परिवार किसी न किसी हिल स्टेशन घूमने चला जाता। लेकिन मूसलाधार बारिश के इस मौसम में अपने शहर से बाहर जितना कम निकलो उतना ही अच्छा होता है। हाँ, ऐसे में किसी शॉपिंग मॉल में जाकर शॉपिंग करना हर उस औरत को पसंद आता है जिसके पति के पेमेंट वालेट में अच्छा खासा बैलेंस हो और बेचारे पति के पास बच निकलने का कोई रास्ता न हो। अब छुट्टी के दिन शकीरा का पति काम का बहाना भी नहीं कर सकता।

सुबह सब लोग देर से उठे थे क्योंकि ना तो शकीरा के पति को ऑफिस जाना था और ना ही उसके बेटे को स्कूल। इसलिए बारह बजे के आस पास उन लोगों ने ब्रंच के रूप में छोले भटूरे खाए और उसके बाद उनकी गाड़ी चल पड़ी सेंट्रल मॉल की तरफ। सेंट्रल मॉल उनके घर से ज्यादा दूर भी नहीं है और वहाँ पार्किंग भी आसानी से मिल जाती है।

मॉल के भीतर पहुँचने पर वे सीधे अपना बाजार के भीतर पहुँचे और वहाँ पहुँचते ही शकीरा के इशारा करते ही उसके पति रमेश बाबू ने अपने हाथ में ठेलागाड़ी यानि शॉपिंग कार्ट थाम ली। सबसे आगे शकीरा का बेटा गोलू, उसके पीछे शकीरा और उन सबके पीछे रमेश बाबू। ऐसी ही टीम लगभग हर तरफ दिख रही थी जिसमें माँ और बच्चे आगे-आगे चल रहे थे और ठेला गाड़ी को घसीटते हुए घर का मुखिया उनके पीछे-पीछे चल रहा था।

अपना बाजार में पहुँचते ही शकीरा की खुशी दोगुनी हो गई। हर तरफ छूट और स्पेशल ऑफर के इश्तहार लगे हुए थे और ग्राहकों को अपनी ओर खींच रहे थे। कोल्ड ड्रिंक की दो बड़ी बोतल खरीदने पर एक बोतल मुफ्त मिल रही थी। रमेश बाबू ने कहा कि डायबिटीज के कारण उन्हें कोल्ड ड्रिंक की मनाही है और शकीरा भी अपनी फिगर को लेकर ज्यादा ही जागरूक रहती है तो शकीरा ने कहा कि घर में बिना नोटिस के आने वाले मेहमानों के लिए पहले से इंतजाम रखना जरूरी होता है। इसी तरह से डील का फायदा उठाने के चक्कर में ज्यादातर सामानों के बड़े पैक खरीदे गए जो कि उनके छोटे परिवार के लिए कम से कम तीन महीनों के लिए काफी होते।

ऐसे ही चलते चलते और शॉपिंग कार्ट भरते हुए जब वे जैम जेली और अचार वाले सेक्शन में पहुँचे तो देखा वहाँ ढ़ेर सारी औरतें एक रैक के पास धक्कामुक्की कर रही थीं। पास जाने पर पता चला कि वहाँ पर मिठास ब्रांड के जैम पर एक पर एक का ऑफर चल रहा था। शकीरा बाकी औरतों को धकियाते हुए उस भीड़ के भीतर पहुँच गई और उधर से जैम की आठ शीशियों के साथ एक विजेता की मुद्रा में लौटी। जब रमेश बाबू ने उन शीशियों का मुआयना किया तो देखा कि उनमें से दो ऑरेंज जैम की शीशियाँ थीं, दो मैंगो जैम, दो मिक्स्ड फ्रूट और बाकी बची दो शीशियाँ क्रैनबेरी जैम की थीं। रमेश तो जैम खाता ही नहीं क्योंकि उसे डायबिटीज है। उसके बच्चों को केवल मिक्स्ड फ्रूट जैम पसंद हैं और वे कभी कभी ऑरेंज या मैंगो जैम का इस्तेमाल कर लेते हैं। लेकिन घर में क्रैनबेरी जैम किसी को पसंद नहीं है। कई साल पहले ट्रायल के लिए एक बार शकीरा ने खरीदा था तो शीशी काफी दिनों तक वैसे ही पड़ी रही और जब जैम के ऊपर सफेद फफूंद पनप गई तो उस शीशी को कचरे के डिब्बे में फेंक दिया गया था। सबने एक बार चखा जरूर था लेकिन हर किसी को उसके अजीब से स्वाद से उबकाई आने लगी थी। इस बार पूछने पर शकीरा ने बताया कि आने वाले महीनों में जब गोलू के किसी दोस्त का जन्मदिन आएगा तो उसे गिफ्ट कर देगी।

शॉपिंग के बाद वे लोग जब घर लौटे तो क्रैनबेरी जैम को लेकर शकीरा को थोड़ी शंका हुई और उसने रमेश बाबू से कहा कि जाकर उसे वापस कर आए। रमेश बाबू का जवाब था कि सौ रुपए की शीशी वापस करने के लिए उसे दो सौ रुपए की पेट्रोल जलाना और फिर पचास रुपए पार्किंग में खर्च करना मुनासिब नहीं लगता है। इसलिए भले ही वह जैम घर में रखे रखे सड़ जाए उन्हें कोई परवाह नहीं। वैसे भी आठ में से चार शीशियाँ तो मुफ्त में ही मिली थीं।

बात आई गई हो गई और जैम की वे दोनों शीशियाँ फ्रिज की शोभा बढ़ा रही थीं। जब भी कोई फ्रिज का दरवाजा खोलता तो उसे मुँह भी चिढ़ा देती थीं।

कई महीने बीतने के बाद बच्चों के स्कूल में सर्दी की छुट्टियाँ शुरु हुईं तो शकीरा ने सोचा कि गोलू को उसके ननिहाल घुमा दिया जाए। सही तारीख देखकर टिकट कटाया गया और रमेश बाबू ने गोलू और उसकी मम्मी को स्टेशन जाकर गोलू के ननिहाल जाने वाली रेलगाड़ी में बिठा दिया। रमेश बाबू को छुट्टी नहीं मिल पा रही थी इसलिए तय हुआ कि लौटते समय गोलू के मामा पटना स्टेशन पर ट्रेन में बिठा देंगे और फिर दिल्ली स्टेशन पर जाकर रमेश बाबू शकीरा  और गोलू को ले आएँगे।

कोई बीस दिन बीतने के बाद गोलू अपनी मम्मी के साथ वापस लौट गया। जैसे ही उनकी कार उनके घर के पास रुकी तो शकीरा  को पड़ोसन के बरामदे में लगे बगीचे में कुछ जानी पहचानी चीज नजर आई। गौर से देखने पर पता चला कि पड़ोसन ने क्रैनबेरी जैम की खाली शीशी में मनीप्लांट का पौधा लगाया था। उस शीशी का डिजाइन इतना सुंदर था का मनीप्लांट का रूप उसमें निखर कर आ रहा था। शकीरा  ने उसे नजरअंदाज करने की कोशिश की लेकिन अपने घर का ताला खोलते समय भी पता नहीं क्यों उसका ध्यान उसी शीशी पर चला जाता था।

घर के भीतर पहुँचने के बाद सफर की थकान मिटाने के लिए पहले नहाने धोने का काम हुआ उसके बाद नाश्ते का। शकीरा की सहूलियत के लिए समय रहते रमेश बाबू ने गर्मागरम नाश्ते का ऑर्डर जोमैटो पर दे दिया था। जैसे ही शकीरा और गोलू नहा धोकर तैयार हुए नाश्ता उनके सामने हाजिर था।

वह रविवार था इसलिए रमेश बाबू को ऑफिस नहीं जाना था। थोड़ी देर आराम करने के बाद शकीरा  अपने घर की साफ सफाई में जुट गई। कोई भी घर अगर मर्द के भरोसे बीस दिनों के लिए छूट जाए तो उसकी हालत देखते बनती है। ऐसा लगता है जैसे वहाँ इनकम टैक्स वालों की रेड पड़ी हो। रमेश बाबू के कपड़े सोफे पर बिखरे हुए थे, ऑफिस की फाइलें किचन में और चाय के जूठे कप स्टडी रूम में। सब कुछ ठीक ठाक करने के बाद शकीरा का ध्यान किचन की तरफ गया। वहाँ भी बुरा हाल था। सिंक के आस पास बरतन बिखरे पड़े थे। पूछने पर पता चला कि महरी तीन दिनों से नहीं आई थी।

सब कुछ ठीक ठाक करने के बाद शकीरा ने जब फ्रिज का दरवाजा खोला तो हक्का बक्का हो गई। फ्रिज में क्रैनबेरी जैम की शीशी नहीं दिख रही थी। उसने जब इस बाबत रमेश बाबू से पूछताछ की तो पता चला कि पड़ोसन को दे दी। शकीरा इस बात के लिए परेशान थी कि अचानक से रमेश बाबू अपनी पड़ोसन का इतना खयाल कैसे रखने लगे। एक दिन रमेश बाबू की तबीयत कुछ नासाज चल रही थी इसलिए वे ऑफिस नहीं गए थे। उनका हाल चाल पूछने पड़ोसन आई थी। फिर पड़ोसन ने जब उनके लिए नाश्ता और चाय बनाई तो कोई सामान निकालने के लिए फ्रिज खोला और उसे क्रैनबेरी जैम की वह शीशी दिखी जिसका सील अभी तक अपनी जगह पर था। चाय और नाश्ते का आनंद लेते हुए रमेश बाबू को जब पता चला कि पड़ोसन को क्रैनबेरी जैम बहुत पसंद है तो उन्होंने उसे पड़ोसन को दे दिया। शकीरा  से कहने लगे कि पड़े पड़े सड़ जाने से तो अच्छा है कि किसी के काम आ गया।

उसके बाद शकीरा  का गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। बताने लगी कि इतने सालों से कभी भी वह पड़ोसन शकीरा  का हालचाल लेने नहीं आईं। शकीरा  को यह भी मलाल था कि इतने दिनों तक रमेश बाबू ने शकीरा  की पसंद नापसंद के बारे में कभी नहीं पूछा और एक दिन पड़ोसन ने चाय क्या पिला दी उसकी पसंद नापसंद तक का खयाल रखने लगे। शकीरा  को पूरा शक हो रहा था कि उसके पीठ पीछे कोई और भी खिचड़ी पक चुकी थी। उसने फौरन लैपटॉप ऑन किया और उसपर तत्काल रिजर्वेशन के जरिये अपना और गोलू का टिकट बुक किया उसके बाद टैक्सी बुलवाई और गोलू को लेकर अपने मायके के लिए रवाना हो गई।


Tuesday, December 13, 2022

दिल्ली में नौकरी

 सिन्हा जी के घर में आज अपार खुशी का माहौल है क्योंकि उनके इकलौते बेटे कुशाग्र सिन्हा का प्लेसमेंट हो गया है यानि नौकरी लग गई है।

जब कुशाग्र का जन्म हुआ था तो बहुत विचार विमर्श और पंडित की सलाह के बाद उसका नामकरण हुआ क्योंकि कुशाग्र का मतलब होता है तीक्ष्ण बुद्धि वाला व्यक्ति। कुशा एक तरह की घास होती है जिसका सिरा और किनारा इतना तेज होता है कि अगर किसी ने ध्यान नहीं दिया तो उसके हाथ आसानी से जख्मी हो जाते हैं। अब आज के जमाने में भला पुराने जमाने वाले नाम जैसे संजय, अजय, राकेश, मुकेश, दिलीप जैसे नाम कौन रखता है। कुशाग्र के धनबाद वाले फुफ्फा वैसे भी कहते हैं कि ये सब नाम तो बस की नंबर प्लेट जैसे हो गए हैं जो हर जगह दिखाई देते हैं।

बहरहाल, कुशाग्र पर उसके नाम का असर बस इतना ही पड़ा था कि तीन साल किसी महंगे कोचिंग में पढ़ने और बारहवीं के बाद एक साल ड्रॉप करने के बावजूद बड़ी मुश्किल से उसका दाखिला झारखंड के महातेजस्वी महाप्रतापी इंजीनियरिंग कॉलेज नाम के एक संस्थान में हुआ और जिस कॉलेज का नाम इतना कम मशहूर था कि उसे गूगल भी नहीं ढ़ूँढ़ पाता था। रिश्तेदारों के पूछने पर यह बताया जाता था कि कुशाग्र के घर से यानि भुरकुंडा से वह कॉलेज नजदीक था और सिन्हा दंपति ने अपने इकलौते बेटे को घर से ज्यादा दूर भेजना उचित नहीं समझा था। बेटा इंजीनियरिंग की डिग्री ले ले यही उनके मुहल्ले में उनकी नाक ऊँची करने के लिए काफी था।

जिस कंपनी में प्लेसमेंट हुआ था उसके बारे में सिन्हा जी का कहना था कि कोई मल्टीनेशनल कंपनी है और कुशाग्र को लाखों का ऑफर मिला है। कितने लाख का यह नहीं बताते थे। प्लेसमेंट के उपलक्ष में घर में बकायदा पूजा पाठ और भोज का आयोजन हुआ जिसमें कोई पाँच सौ लोग शामिल हुए और तरह तरह के व्यंजनों का लुत्फ उठाया और कुशाग्र के हाथ में शगुन का लिफाफा थमा कर चले गए। सिन्हा जी जब जोड़ घटाव कर रहे थे तो इस बात पर तसल्ली कर रहे थे कि शगुन के लिफाफों से पूजा और भोज का खर्चा वसूल हो चुका था।

नौकरी शुरु करने के लिए कुशाग्र को दिल्ली जाना था क्योंकि उसकी पोस्टिंग कम्पनी के हेड ऑफिस में हुई थी जो नोएडा में है। बेटा पहली बार दिल्ली जैसे महानगर जा रहा था इसलिए तय हुआ कि वह अपने मामा के घर ही रहेगा जो गाजियाबाद में रहते हैं। मामा ने भी बताया था कि नई नौकरी में जितनी तनख्वाह मिलती है उसमें अकेले डेरा लेकर दिल्ली, गुड़गाँव या नोएडा में गुजर बसर करना लगभग असंभव हो जाता है।

बेटे को उसके मामा के घर भेजने में सिन्हा जी की पत्नी यानि सिन्हाइन जी को बहुत गर्व महसूस हो रहा था क्योंकि आखिरकार वह मौका आ गया था जब अपनी ससुराल वालों पर रोब जमाने और उन्हें ताने मारने का भरपूर अवसर मिल चुका था।

अब कुशाग्र ठहरा नए जमाने का युवक जिसे अपनी आजादी और निजता का बहुत खयाल रहता था। इसलिए वह फैल गया और कहने लगा कि वह नोएडा में अकेले रहेगा। सोशल मीडिया पर उसके कई दोस्त थे जो अक्सर पीजी (पेइंग गेस्ट) की तसवीरें डाला करते थे और जिन तसवीरों से पता चलता था कि पिज्जी या पीजी का जीवन बड़ा ही आकर्षक और रोमांचकारी होता है। कुछ पिज्जी में तो लड़के और लड़कियाँ साथ रहते थे। कुछ तसवीरों से यह भी पता चलता था कि पिज्जी के आसपास के बाजार में रंगबिरंगी रोशनी से सराबोर दुकानें होती थीं जिनमें खाने पीने की हर वह चीज मिलती थी जिसके बारे में इक्कीसवीं सदी की शुरुआत में जन्मा और 2020 के दशक में जवानी की दहलीज पर पहुँचने वाला कोई भी व्यक्ति कल्पना कर सकता था। कुशाग्र को भी वैसे ही व्यंजन पसंद थे जैसे पिज्जा, बर्गर, मोमो, चाउमिन, आदि। यह सुनकर सिन्हाइन उसकी बात काटते हुए कहती थीं कि कुशाग्र के दोस्तों का कोई भरोसा नहीं क्योंकि सुंदर तस्वीरें तो कोई इंटरनेट से उठा कर भी डाल सकता है। सिन्हा जी, सिन्हाइन  और कुशाग्र के बीच होने वाली बहसों को तब पूर्णविराम लग गया जब कुशाग्र के कानों में मोबाइल फोन से उसके मामा की भारी भरकम आवाज पहुँची। ठीक वैसी ही आवाज कभी उसने पुरानी फिल्म मुगले-आजम देखते हुए सुनी थी जब उस फिल्म को उसके दादा देख रहे थे। उनकी आवाज सुनते ही उसकी समझ में आ गया कि किस तरह उसके नाना के गुजरने के बाद उसके मामा ने अपने छोटे भाई बहनों का किसी कड़क गार्जियन की तरह पालन पोषण किया, उन्हें पढ़ाया लिखाया और फिर उनकी शादियाँ कर दी।

बेचारे कुशाग्र के पास अब कोई चारा नहीं था। उसे पता था कि आगे के दो तीन साल हिटलर जैसे किसी व्यक्ति की छत्रछाया में गुजरने वाले हैं। कुशाग्र की माँ ने बताया था कि मामा सुबह तड़के उठ जाते हैं और घर के बाकी लोगों से भी वही उम्मीद रखते हैं। आखिरी बार कुशाग्र सुबह सुबह तब उठा था जब स्कूल में बारहवीं की क्लास का आखिरी दिन था। उसके बाद उसने कोचिंग क्लास ऐसी जगह पकड़ी थी जहाँ दोपहर के बाद ही जाना पड़ता था। इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान होस्टल में तो उसकी आदतें और भी बिगड़ चुकी थीं। उसके सारे सहपाठी पूरी रात लैपटॉप पर वेब सीरीज देखते थे और फिर अगले दिन कोई भी तब तक नहीं उठता था जब तक सूरज सिर पर नहीं होता था या फिर होस्टल का वार्डेन डंडे लेकर नहीं दौड़ाता था। लेकिन अपनी माँ के दबाव में उसके पास झुकने के सिवा कोई चारा नहीं था।

दिल्ली में सिन्हा जी के कई रिश्तेदार रहते थे लेकिन बात करने पर हर किसी ने कोई न कोई बहाने बनाकर कुशाग्र को अपने घर पर रखने से मना कर दिया। किसी का फ्लैट बहुत छोटा था तो किसी के बच्चे की पढ़ाई में खलल पड़ने की आशंका थी तो किसी को एक अतिरिक्त आदमी के रहने से बढ़ने वाले खर्चे का डर सता रहा था। कुशाग्र के मामा का घर बहुत बड़ा तो नहीं था लेकिन उनका दिल वाकई बड़ा था। इसके पहले भी न जाने कितने रिश्तेदारों के बच्चे पढ़ाई या नई नौकरी ज्वाइन करने के चक्कर में उनके यहाँ महीनों रह चुके थे।

कुशाग्र का सामान पैक हुआ और वह अपने माँ बाप के साथ टेम्पो से बरकाकाना के लिए रवाना हुआ जहाँ के रेलवे स्टेशन से उसे दिल्ली जाने वाली ट्रेन गरीब रथ में सवार होना था। भुरकुंडा एक छोटा सा कस्बा है जहाँ कोयले की खानें हैं और बरकाकाना वहाँ से महज दो या तीन किलोमीटर की दूरी पर है। छोटानागपुर की सुंदर पहाड़ियों से घिरा यह रेलवे स्टेशन दूर से देखने पर बिलकुल निर्जन स्थान पर लगता है लेकिन यहाँ से कई रेलगाड़ियाँ आती जाती हैं। गरीब रथ देर शाम में बरकाकाना स्टेशन से रवाना हुई और अगले दिन ग्यारह बजे के आसपास नई दिल्ली पहुँच गई। कुशाग्र के मामा अपनी लाल रंग की चमचमाती हुई कार से उसे लेने नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुँच चुके थे।

कुशाग्र शनिवार को पहुँचा था ताकि रविवार को आराम के लिए पूरा दिन मिल जाए। लेकिन मामा के रहते हुए यह संभव नहीं था। मामा ने उसे कार में बिठाया और रास्ते और शहर से परिचित कराने के लिए उसे उसके ऑफिस तक ले गए। रास्ते भर उसे यह बताते रहे कि कहाँ से ऑटोरिक्शा लेनी है और कहाँ से मेट्रो ट्रेन पकड़नी है। मामा के घर से उसके ऑफिस की दूरी कोई चालीस किलोमीटर होगी। ठीक उतनी ही दूरी पर भुरकुंडा से उसका इंजीनियरिंग कॉलेज पड़ता था, जहाँ से वह महीने में एकाध बार ही अपने घर आने की हिम्मत जुटा पाता था। अब इस खयाल से उसका कलेजा बैठ रहा था कि रोज रोज उसे इतनी दूरी तय करनी पड़ेगी वह भी दो बार। मामा ने बताया था कि कुछ दिन दिल्ली में रह लेने के बाद यह दूरी उसे मामूली दूरी लगेगी।

नौकरी ज्वाइन करने के बाद दो हफ्ते कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। हाँ बीच बीच में शनिवार और इतवार के दिन उसे तब तकलीफ होती जब मामा के कहने पर उसे तड़के बिस्तर छोड़ना पड़ता था और फिर उनके साथ किसी पार्क में दौड़ लगाने जाना पड़ता था। एक पखवाड़ा बीतने के बाद तो मामा उसे रोज सुबह की सैर पर ले जाने लगे। रात में ठीक दस बजे घर का टीवी और इंटरनेट का राउटर स्विच ऑफ कर दिया जाता था और घर के हर व्यक्ति का मोबाइल फोन मामा के कब्जे में चला जाता था ताकि कोई भी बिलावजह देर रात तक जाग न सके। बेचारा कुशाग्र अब केवल अपने सपने में वेब सीरीज देख पाता था। उसे अब रोज रोज सुबह नहाना भी पड़ता था जिसकी आदत उसने कब की छोड़ दी थी।

कोई एक महीना बीतने के बाद कुशाग्र ने दबी जुबान से अपनी मामी से शाम में कहीं घूमने जाने की अनुमति माँगी जो मामी ने आसानी से दे दी। चलते चलते मामी ने कई नसीहतें दीं, जैसे किस मॉल में जाना है और किसमें नहीं, हमेशा शेअर ऑटो में बैठना है, कभी भी पूरी टैक्सी नहीं बुक करनी है, देर रात तक बाहर नहीं रहना है और हर हाल में रात के नौ बजे से पहले घर वापस आ जाना है। लग रहा था मामी सही मायने में मामा की धर्मपत्नी थीं।

आज कुशाग्र अगले चार पाँच घंटों के लिए पूरी तरह आजाद था। उसके कुछ दोस्त भी आने वाले थे और सभी अट्टा मार्केट के पास किसी मॉल में मिलने वाले थे। घर से निकलते ही कुशाग्र ने किसी एप्प से एक टैक्सी बुक की और उसकी पिछली सीट पर किसी शहंशाह की तरह बैठ गया। एक्सप्रेसवे पर फर्राटे से गुजरती कारों की टेल लाइट की कतारों से दिवाली जैसा समा बन रहा था। मामा के घर से नोएडा शहर की सीमा पर तो लगा कि पलक झपकते पहुँच गए। उसके बाद कुशाग्र की टैक्सी किसी तरह बस रेंग रही थी। लेकिन कुशाग्र को कोई जल्दबाजी नहीं थी। वह तो बस कारों और बाइकों के एक से बढ़कर एक मॉडल देखने में व्यस्त था। कोई एक सवा घंटे के बाद वह अट्टा मार्केट पहुँचा जहाँ उसके दोस्त उसका इंतजार कर रहे थे। सभी लोग एक मॉल में गए जिसमें इतने लोग नजर आ रहे थे जितने पूरे भुरकुंडा और बरकाकाना में भी नहीं रहते होंगे। सबसे पहले कुशाग्र और उसके दोस्त सबसे ऊपरी मंजिल पर स्थित फूड कोर्ट में गए और एक से एक लजीज व्यंजनों का स्वाद चखा।

एक दुकान पर एक मोटा आदमी बड़े नाटकीय अंदाज में आइसक्रीम बेच रहा था। आपने शायद इंटरनेट पर वीडियो देखा होगा जिसमें सेल्समैन अपने ग्राहक को आइसक्रीम देते समय ऐसे नाटक करता है जैसे उसे आइसक्रीम से बिछड़ने में बहुत दर्द हो रहा हो। वह कई बार अपने हाथ आगे पीछे करके अपने ग्राहक को छकाता है। यह देखकर बाकी लोग तालियाँ बजाते हैं। ग्राहक जब बिलकुल थक जाता है और पूरी तरह उम्मीद खो देता है तब कहीं जाकर आइसक्रीम उसके हाथ लगती है। कुशाग्र ने वहाँ से आइसक्रीम खरीदी और आइसक्रीम लेते समय जो भी नाटक हुआ उसका वीडियो उसके एक दोस्त ने बनाया। सोशल मीडिया पर वीडियो अपलोड होते ही पूरे झारखंड और बिहार से लाइक और कमेंट का जो सिलसिला शुरु हुआ वह रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। कुशाग्र अपनी फैन फॉलोइंग देखकर फूले नहीं समा रहा था।

उसके बाद उन लोगों ने पूरे मॉल में जी भर कर विंडो शॉपिंग की और फिर गेमिंग जोन में जाकर कई तरह के गेम्स पर अपने हाथ आजमाए। एक गेम में कुशाग्र की किस्मत ने साथ दिया और प्राइज में उसे एक बड़ा सा टेडी बियर मिल गया जिसका आकार कुशाग्र से एकाध इंच ही छोटा रहा होगा। उसने फटाक से उस टेडी बियर के साथ सेल्फी ली और अपनी माँ को वह फोटो भेज दी।

नोएडा की नाइट लाइफ का मजा लेने में समय कब निकल गया पता ही नहीं चला। जब मॉल में इक्का दुक्का लोग ही नजर आने लगे तो कुशाग्र और उसके दोस्तों ने एक दूसरे से विदा लिया और अपने अपने घरों की ओर चल पड़े। टैक्सी में बैठने के बाद जब कुशाग्र ने अपना मोबाइल देखा तो उसके हाथ पाँव फूल गए। मामा के नम्बर से कई मिस्ड कॉल थे जो शोर शराबे में उसे सुनाई नहीं दिए। टैक्सी पूरी रफ्तार से अपनी मंजिल की ओर बढ़ रही थी। अब गाड़ियों की टेल लाइटें उस खतरे के सिग्नल की तरह लग रहीं थीं जिस खतरे की तरफ कुशाग्र बढ़ रहा था।

मामा के घर पहुँचने में रात के साढ़े ग्यारह बज चुके थे। दरवाजा खुलते ही मामा का प्रवचन चालू हुआ। प्रवचन की भूमिका में पता चला कि किस तरह मामा ने अपने भाई बहनों का जीवन संवारने के चक्कर में अपना जीवन बरबाद किया और फिर किस तरह पुश्तैनी संपत्ती बेच बेचकर बहनों की शादियाँ कराईं। मामा ने यह भी बताया कि यदि ऐसा वे नहीं करते तो टू बी एच के (दो बेडरूम हॉल और किचेन) फ्लैट की जगह आज उनके पास आलीशान बंगला होता। मामा ने फिर अर्ली टू बेड अर्ली टू राइज के फायदे गिनाए। उसके बाद मामा ने ऐसे कई किस्से सुनाए जिनमें देर रात चलने के कारण दिल्ली एन सी आर (नेशनल कैपिटल टेरिटरी) में कितने लोगों को लूट लिया गया, उनके एटीम कार्ड से पैसे निकलवा कर उन्हें किसी सुनसान जगह पर फेंक दिया गया, कइयों का अपहरण करके मोटी रकम वसूली गई, और कई लड़कियों के साथ तो जघन्य अपराध तक हुए।

यह सब सुनने के बाद कुशाग्र को उसके कमरे में सोने के लिए भेज दिया गया। अपनी आपबीती सुनाने के लिए वह अपनी माँ से भी बात नहीं कर सकता था क्योंकि फोन तो मामा के कब्जे में था।

उस हादसे को कोई पंद्रह दिन बीते थे कि कुशाग्र ने अपनी माँ से बात की और बताया कि वह वापस भुरकुंडा आ रहा है। जब माँ घबड़ाईं तो उसने दिलासा दिया कि वह नौकरी नहीं छोड़ रहा बल्कि अपने मैनेजर से बात करके वर्क फ्रॉम होम की अनुमति ले रहा है ताकि अपने बुजुर्ग माँ बाप की सेवा कर सके। सिन्हाइन पचास का आँकड़ा छूने ही वाली थीं लेकिन सिन्हा जी ने कहा कि कुशाग्र कुछ ज्यादा ही बोल रहा है और वह अभी भी पैंतीस से एक साल भी अधिक की नहीं लगती हैं। सिन्हाइन के पास खुश होने के अब दो कारण थे इसलिए उन्होंने अपने पति के लिए मलाई चिकन और पुलाव पकाया और पास वाले हलवाई से लेंगचा (एक स्थानीय मिठाई जो गुलाबजामुन की तरह लगती है) भी मंगवा लिया।

एक सप्ताह बाद कुशाग्र की आजादी का दिन आ गया। आज वह अपने हिटलर मामा की जेल से हमेशा के लिए आजाद होने जा रहा था। अब तक उसे तीन महीनों की तनख्वाह भी मिल चुकी थी। मामा के यहाँ रहने के कारण उसका अधिकाँश हिस्सा जमा ही हुआ था इसलिए कुशाग्र ने दिल्ली से राँची के लिए फ्लाइट का टिकट बुक किया था। चलते समय जब उसने मामा के पैर छुए तो मामा ने उसकी जेब में पाँच सौ का एक नोट रख दिया और कहा कि यह मामा के आशीर्वाद की निशानी है। यह सुनकर पता नहीं क्यों कुशाग्र की आँखें डबडबा गईं।

भुरकुंडा पहुँचने पर उसका भव्य स्वागत हुआ। कुशाग्र की माँ ने उसकी पसंद का भोजन बनाया था। कुशाग्र के कमरे में एसी भी लगवा दिया गया था ताकि काम करने में कोई परेशानी न हो। ड्राइंग रूम में नया सोफा सेट आ चुका था। पूछने पर पता चला कि अब शादी की बात करने वाले लड़की वालों की जब लाइन लगने लगेगी तो उनपर अच्छी छवि बनाने के लिए यह सब जरूरी है।

अब कुशाग्र आराम से नौ बजे सोकर उठता था और बिना नहाए धोए दस बजे तक काम करने बैठ जाता था। दोपहर में जब लंच ब्रेक होता तो वह नहा लिया करता था। मामा के यहाँ रहते रहते आदत इतनी सुधर चुकी थी कि अब वह रोज नहाने लगा था। शाम में काम खत्म होने के बाद जब वह मोहल्ले में घूमने निकलता तो हर कोई उसे सलाम ठोंकता। मोमो की दुकान वाले ने उसे उधार देना भी शुरु कर दिया था।

कहते हैं कि खुशी के पल बहुत छोटे होते हैं। कुशाग्र के मैनेजर ने उस कम्पनी की नौकरी छोड़ दी और मोटी तनख्वाह पर किसी और कम्पनी में चला गया। उसकी जगह कोई नया मैनेजर आया तो उसने फौरन कुशाग्र को नोएडा वापस आने को कहा। जब पूछा गया तो कुशाग्र ने बताया कि पुराने मैनेजर से बस जुबानी बातचीत हुई थी और लिखत पढ़त में कुछ भी नहीं हुआ था यानि ना कुशाग्र की तरफ से कोई ईमेल था और ना ही पुराने मैनेजर की तरफ से। कुशाग्र ने जब नए मैनेजर से जिरह करने की कोशिश की तो उसने बताया कि या तो वह फौरन दिल्ली के लिए फ्लाइट बुक करे या फिर अपने लिए कोई और नौकरी ढ़ूँढ़ ले। कुशाग्र और उसके माँ बाप को पहला विकल्प ही बेहतर लगा।

जब सिन्हाइन ने इस बाबत कुशाग्र के मामा को फोन किया तो मामा ने बस इतना कहा कि आजकल के लड़के हैं इसलिए ऐसी गलतियाँ करते रहते हैं और धीरे धीरे सुधर जाएँगे। इस बार मामा ने यह वादा भी किया कि अगली बार पूरी जाँच पड़ताल किए बिना कुशाग्र को वापस जाने नहीं देंगे।

घर पर रईसी करने के चक्कर में कुशाग्र पास अब इतने पैसे नहीं बचे थे कि वह फ्लाइट के साथ टैक्सी का खर्चा भी उठा सकता था। मैनेजर के दबाव में फ्लाइट का टिकट लेना तो उसकी मजबूरी थी। मामा से पूछने पर उसे जरूरी निर्देश मिल गये कि किस तरह पालम हवाई अड्डे से एअरपोर्ट एक्सप्रेस वाली मेट्रो पकड़नी है, फिर नई दिल्ली से राजीव चौक और फिर राजीव चौक से ब्लू लाइन वाली मेट्रो। सस्ते के चक्कर में कुशाग्र ने राँची से सुबह छ: बजे की फ्लाइट का टिकट लिया। भुरकुंडा में अब तक इतना प्रभाव तो बन ही चुका था कि सिन्हा जी के किसी परिचित ने अपनी कार से उसे राँची एअरपोर्ट तक मुफ्त में पहुँचा दिया। दिल्ली एअरपोर्ट से कुशाग्र ने एअरपोर्ट एक्सप्रेस वाली मेट्रो पकड़ी जिससे पलक झपकते ही वह नई दिल्ली स्टेशन पहुँच गया। एअरपोर्ट एक्सप्रेस में बैठते ही ऐसा लगा जैसे जापान या यूरोप पहुँच चुका हो। आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि वह अपने देश भारत में है।

जब वह राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पहुँचा तो सुबह के दस ही बजे थे। इतवार का दिन भी था इसलिए कहीं पहुँचने की जल्दी नहीं थी। सामान के नाम पर उसके पास एक सूटकेस था और एक बैकपैक। अपने दोस्तों से उसने कनॉट प्लेस का बहुत नाम सुन रखा था इसलिए सोचा कि कनॉट प्लेस के नजारे का आनंद लिया जाए। राजीव चौक से बाहर आते ही लगा कि वह पाताल से जमीन पर उदित हुआ है। नवंबर का महीना होने के कारण मौसम बड़ा सुहाना था, न ज्यादा गर्मी न सर्दी। पीठ पर बैकपैक लादे और पहिए वाले सूटकेस को खींचते हुए वह कनॉट प्लेस के बाजार में दिशाहीन चलता चला जा रहा था। इतवार का दिन होने के बावजूद वहाँ इतनी भीड़ थी जितनी भुरकुंडा में दुर्गा पूजा के मेले में भी नहीं होती है। कहीं उसने सस्ते रेट में दो चार टी शर्ट खरीदी, फिर धूप का चश्मा खरीदा, फिर दिल्ली का नक्शा भी खरीदा। एक बार उसके मन में यह खयाल आया कि भला गूगल मैप के जमाने में नक्शा कौन खरीदता है, फिर सोचा कि दीवार पर पोस्टर लगाने के काम आएगा। बीच में एक बार मामा का फोन बजा तो उसने मैसेज कर दिया कि मेट्रो लाइन में कुछ तकनीकी खराबी के कारण देर हो रही है।

काफी घूमने फिरने के बाद एक बेंच पर वह सुस्ताने के लिए बैठ गया और आइसक्रीम खाने लगा। उसकी बगल में एक और आदमी आकर बैठा और वह आदमी भी आइसक्रीम खाने लगा। कमाल का संयोग था कि दोनों एक ही फ्लेवर वाली आइसक्रीम खा रहे थे। दोनों ने एक ही तरह के काले चश्मे पहन रखे थे और वह आदमी अदाएँ देने में कुशाग्र की पूरी पूरी नकल कर रहा था। यह देखकर कुशाग्र को कुछ अजीब भी लग रहा था और मजा भी आ रहा था। तभी उस आदमी के हाथ से आइसक्रीम छिटककर गिरी और जाकर कुशाग्र के टी-शर्ट पर लगी। ज्यदा तो नहीं लेकिन कुशाग्र की टी-शर्ट की जेब आइसक्रीम से गीली हो चुकी थी। उस आदमी सॉरी बोला और कुशाग्र से कहा कि सामने लगे नल से पानी लेकर टी-शर्ट साफ कर ले। उस आदमी के सॉरी बोलने का लहजा इतना नफासत भरा था कि कुशाग्र को जरा भी गुस्सा नहीं आया और वह मुसकरा कर अपनी टी-शर्ट साफ करने चला गया। जब वह ट—शर्ट साफ करके पीछे मुड़ा तो वह बेंच खाली थी। बेंच पर से वह आदमी गायब हो चुका था और उसके साथ कुशाग्र का सूटकेस भी गायब हो चुका था। कुशाग्र वहीं सिर पकड़ कर बैठ गया। अपने आप को संभालने में उसे कोई आधे घंटे लग गए।

उसके बाद कुशाग्र जमीन के नीचे पाताल में उतर गया और राजीव चौक से ब्लू लाइन वाली मेट्रो में सवार हो गया। अब वह गुमसुम बाहर सूने आसमान को निहार रहा था।

जब अंत में वह अपने मामा के घर पहुँचा और अपनी आपबीती सुनाई तो मामा का लंबा प्रवचन शुरु हुआ। प्रवचन समाप्त होने के बाद मामा ने कुशाग्र की माँ को फोन लगाया और उन्हें प्रवचन के बाकी अध्याय सुनाए। उसके बाद मामा ने कुशाग्र को अपने पास रखने के लिए कई शर्तें रखीं जिन्हें कुशाग्र की माँ ने शत प्रतिशत मान लिया। फिर कुशाग्र की आगे की जिंदगी अपनी मंथर गति से चलने लगी।

Friday, August 5, 2022

Watercolor Tutorial India Flag Theme #harghartiranga #azadikaamritmahotsav


This is a tutorial for beginners. This watercolor painting is showing a theme based on Har Ghar Tiranga, celebrating Azadi Ka Amrit Mahotsav. The birds flying across the white of the tiranga are representing freedom.

Tuesday, June 21, 2022

Watercolor Tutorial Tiny Bird & Snow #watercolortutorial

This is a tutorial for beginners. This watercolor painting is showing a tiny bird hopping on snow. This is beautiful orange and blue bird. This painting has been completed using a very limited palette of colours.

Friday, December 10, 2021

लुत्ती झा का स्मार्ट फोन

 “हाँ भई, झाजी, कहाँ चल दिए? इतनी अच्छी धूप तो अब एक दो दिन की मेहमान है। अच्छी तरह से धूप सेंक लो। हड्डियाँ मजबूत हो जाएँगी।“ सक्सेना जी ने अपनी दोनों हथेलियों से अपनी भुजाओं को थपथपाते हुए कहा।

“अरे नहीं, अब इस उम्र में हड्डियाँ क्या खाक मजबूत होंगी। काफी देर हो चुकी है, लंच का समय हो चुका है। लोग घर में इंतजार कर रहे होंगे।“ लुत्ती झा ने जवाब दिया।

यह सुनकर गुप्ता जी ने कहा, “लगता है अभी भी बीबी से डरते हो। अरे वीडियो कॉल करके भाभी जी को भी दिखा दो इस गुलाबी धूप में अपना पार्क कितना खूबसूरत दिखता है। हो सकता है वह भी आ जाएँ तुम्हारे साथ कुछ क्वालिटी टाइम बिताने।“

यह सुनकर वहाँ बैठे बाकी बुड्ढ़े एक साथ ठहाका लगाने लगे। जब ठहाके समाप्त हुए तो सक्सेना जी ने कहा,”अरे भई, हमारे झा साहब अपने पेंशन की एक एक पाई बचाकर रखते हैं। आज भी कीपैड वाला मोबाइल लेकर घूमते हैं। वो भला क्या समझेंगे कि वीडियो कॉल में जो मजा आता है वह वॉयस कॉल में कहाँ। मैं तो रोज रात में तीन चार बजे अपने पोते से बातें करता हूँ। वह अमेरिका में रहता है और उस वक्त वहाँ दिन होता है।“

गुप्ता जी ने कहा, “हाँ भई, उसके अलावा और भी बहुत से मजे हैं जो आप स्मार्ट फोन से ले सकते हैं। मैं तो पूरी रात रजाई में छुपकर एक से एक वीडियो देखता हूँ। सचमुच मजा आ जाता है।“

यह सुनकर दुग्गल जी ने कहा, “हाँ, अब आप ही तो वैसे मजे ले सकते हैं। रंडुवे जो ठहरे। मेरी बीबी तो रात के दस बजते ही मेरा स्मार्टफोन जब्त कर लेती है और मुझे अच्छे बच्चे की तरह सो जाने की हिदायत देती है।“

“भई, मैं तो कभी भी अच्छा बच्चा न था और न ही भविष्य में ऐसी कोई उम्मीद है। हम तो दोनों मियाँ बीबी पूरी रात वीडियो देखते हैं।“ सक्सेना जी ने कहा।

यह सुनकर दुग्गल जी ने कहा,”अब इस उमर में आपके पास और चारा भी क्या है। वीडियो ही देख सकते हो, कुछ कर तो सकते नहीं।“

सबने जोर से ठहाका लगाया और फिर वहाँ से लुत्ती झा ने सबको बाई बाई किया और अपने घर की ओर चल पड़े। लुत्ती झा जब तक घर पहुँचे तब तक डाइनिंग टेबल पर खाना निकल चुका था और उनकी बीबी, बहू और पोते पोती उनके आने का इंतजार कर रहे थे। आज कमाल हो गया। लुत्ती झा चुपचाप खाना खा रहे थे। एक बार भी उन्होंने सब्जी या दाल में कोई मीन मेख नहीं निकाली। एक बार भी चीनी नहीं मांगी और बगैर चीनी के ही पूरी कटोरी भर दही साफ कर दिया। थाली में एक निवाला भी नहीं छोड़ा। इस बात पर हर कोई ध्यान दे रहा था। लंच के बाद लुत्ती झा अपने कमरे में लेटे हुए थे और उसी अखबार को दोबारा पढ़ने की कोशिश कर रहे थे जिसे  उन्होंने सुबह ही पढ़ा था। मौका देखकर जब उनकी बीबी ने उनकी तबीयत खराब होने की आशंका जताई तो उन्होंने ना में जवाब दिया। शाम में वे बाहर टहलने भी नहीं गये।

शाम के सात साढ़े सात  बजे जब उनका बेटा नचिकेता ऑफिस से लौटा तो उनकी बहू सरिता ने उससे लुत्ती झा के अजीबोगरीब बरताव के बारे में बताया। चाय पीते पीते नचिकेता ने पास के ही एक कंपाउंडर को फोन कर दिया। कंपाउडर, जिसका नाम ललित था आधे घंटे के भीतर आ चुका था। उसने लुत्ती झा का ब्लड प्रेशर मापा जो नॉर्मल था। फिर उसने ब्लड शुगर भी चेक किया तो देखा कि वह भी सही था। फिर नचिकेता ने पूछा कि गाँव से कोई फोन वोन तो नहीं आया था  तो पता चला कि ऐसी कोई बात नहीं थी। उसने और तसल्ली के लिए यह भी सुनिश्चित कर लिया कि उसके बेटे और बेटी ने अपने दादा के साथ कोई ऐसी वैसी बात तो नहीं कह दी तो पता चला ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। फिर सरिता ने बताया कि हो सकता है किसी कारण से मूड खराब हो गया होगा और एक दो दिन में अपने आप ठीक हो जाएगा।

अगले दिन लुत्ती झा ने अपने बेटे से कहा कि वो बाजार जाना चाहते हैं क्योंकि उन्हें एक स्मार्टफोन खरीदना है। यह सुनकर नचिकेता ने कहा, “पापा, महीने का आखिरी सप्ताह चल रहा है और इस महीने पहले ही कई मोटे  खर्चे हो चुके हैं। कार का इंश्योरेंस करवाया था और इस महीने लट्टू और ऐश्वर्या की एग्जाम फीस भी देनी पड़ी थी। आप आठ दस रोज रुक जाइए तो अगले महीने सैलरी मिलते ही एक स्मार्टफोन खरीद दूंगा।“

लुत्ती झा, अपने नाम के मुताबिक आग उगलने लगे। लुत्ती एक देशज शब्द है जिसका अर्थ होता है चिंगारी। बताते हैं कि बचपन से ही लुत्ती झा बड़े ही गुस्सैल हुआ करते थे। बचपन में ही उनके लक्षण देखकर उनके  पिताजी ने उनका यह नामकरण किया था। बहरहाल, लुत्ती झा बिफर पड़े, “मैंने कब कहा कि तुम म्रेरे लिए स्मार्टफोन खरीद दो। अभी तुम्हारा बाप इतना कमजोर नहीं हुआ है। मुझे पेंशन मिलता है और इतना मिलता है  कि मैं अपने लिए स्मार्टफोन खरीद सकता हूँ।“

नचिकेता ने समझाया,”हाँ मुझे पता है कि आपको पेंशन मिलता है। लेकिन मेरे रहते हुए अगर आपको उसमें से खर्च करना पड़े तो मुझे अच्छा नहीं लगेगा।“

उसके इस वक्तव्य ने लुत्ती झा के गुस्से में आग में घी जैसा काम किया। लुत्ती झा ने कहा, “अच्छा, अभी तक मैं साधारण सा सैमसंग गुरु का फोन लेकर घूम रहा था तो तुम्हें बड़ा अच्छा लग रहा था। कभी सोचा कि लोग  क्या कहते होंगे कि एक जेनरल मैनेजर का बाप कीपैड वाला फोन लेकर घूमता है। अरे आजकल तो पटरी पर बैठने वाले भिखारी के हाथ में भी स्मार्टफोन दिखता है। मोहित के बारे में सुना ही होगा। नौकरी लगते ही पहले महीने ही उसने तुम्हारे फूफा और फुआ को अलग-अलग स्मार्टफोन दिला दिया। लेकिन, हमारी वैसी किस्मत कहाँ। तुम्हारी माँ के पास तो कीपैड वाला फोन भी नहीं है। यहाँ रहो, तो रिश्तेदारों को बड़ी बहू वाले नम्बर पर कॉल करना पड़ता है। ननकऊ के यहाँ रहो, तो लोग छोटी बहू के नम्बर पर कॉल करते हैं। हमारी तो कोई पहचान ही नहीं रही। रिटायर होने का ये मतलब थोड़े ही होता है।“

इन बातों को सब लोग पूरी खामोशी से सुन रहे थे। सरिता ने उन्हें बीच में टोकते हुए कहा, “मेरी सैलरी तो पूरी की पूरी जमा हो जाती है। अभी पिछले महीने ही मुझे बोनस भी मिला था। यदि आप को नागवर न लगे तो मैं पापा के लिए स्मार्टफोन खरीद दूं।“

लुत्ती झा ने पहले तो आनाकानी की लेकिन थोड़े मान मनौव्वल के बाद राजी हो गये। फिर क्या था, आनन फानन में सब लोगों ने कपड़े बदले और बाजार जाने के लिए तैयार हो गये। नचिकेता पहले ही लिफ्ट से नीचे उतर चुका था ताकि सबके गेट पर पहुँचने से पहले वह पार्किंग से अपनी कार निकाल कर पहुँच जाए। गेट पर सबलोग कार में सवार हुए और वहाँ से कोई दस पंद्रह मिनट की ड्राइव के बाद महाराजा मॉल पहुँच गए। मॉल में मोबाइल फोन के शोरूम से उन्होंने अपने बजट और जरूरत के हिसाब से रेडमी का एक लेटेस्ट मॉडल खरीदा। उसके लिए बकायदा चमड़े वाला मोबाइल कवर भी खरीदा गया। लुत्ती झा के मन में लड्डू फूट रहे थे लेकिन अपने जीवन में न जाने कितने बसंत देख चुकने के कारण उन लड्डुओं की जरा सी भी मिठास उनके चेहरे पर झलक नहीं रही थी। उसके बाद मोबाइल खरीदने की खुशी में सबने एक फास्ट फूड की दुकान में बर्गर और कोल्ड ड्रिंक की पार्टी की। लौटते लौटते रात के साढ़े नौ दस बज चुके थे।

घर पहुँचते ही नचिकेता ने पुराने मोबाइल का सिम नए स्मार्टफोन में लगा दिया और लुत्ती झा को उसे चलाने के लिए थोड़ी बहुत टिप्स दे दी। फिर उसने बताया कि अगले दिन जब लट्टू और ऐश्वर्या के ऑनलाइन क्लास खत्म हो जाएँगे तो वे लोग लुत्ती झा के टेक एडवाइजर का काम कर देंगे। अगले दिन सुबह आठ बजते बजते नचिकेता अपना टिफिन लेकर ऑफिस के लिए रवाना हो चुका था। सबके लिए नाश्ता बनाने के बाद सरिता भी जूम पर अपने ऑफिस के स्टाफ के साथ व्यस्त हो चुकी थी। आईटी में काम करने के कारण उसे वर्क फ्रॉम होम की सुविधा  मिली हुई थी। लट्टू और ऐश्वर्या की ऑनलाइन क्लास शुरु हो चुकी थी। लुत्ती झा की पत्नी पार्वती झा पूजा पाठ में व्यस्त थी। लुत्ती झा अखबार और नाश्ते से कब के निबट चुके थे। अब वे बस कभी इस सोफे पर बैठते तो कभी उस सोफे पर। कभी कभी वे अपने पोते पोती के कमरे में झाँक कर यह तसल्ली करते थे कि क्लास चल भी रही है या नहीं।

बारह बजे जाकर ऑनलाइन क्लास खत्म हुई तो लुत्ती झा ने लट्टू और ऐश्वर्या की ओर हसरत भरी निगाहों से देखा। उन दोनों ने अपने दादा को व्हाट्सऐप पर मैसेज भेजना, स्टैटस डालना और वीडियो कॉल करना सिखा दिया। लुत्ती झा ने उनसे सेल्फी लेना भी सीख लिया। फिर क्या था, लंच करने के फौरन बाद लुत्ती झा सीधे पार्क के लिए कूच कर गए। पार्क में पहुँचते ही लुत्ती झा ने अपनी जेब से अपना स्मार्टफोन निकाला और बेंच पर कुछ इस अदा से रखा ताकि हर कोई उसे देख सके।

यह देखकर गुप्ता जी ने कहा, “अरे वाह, अब हमारे झाजी भी स्मार्टफोन धारी बन गये। लेकिन ये क्या, बस रेडमी का फोन। अरे मेरे बेटे ने तो मुझे एप्पल का फोन खरीद दिया था। ये देखो।“

यह सुनकर लुत्ती झा ने कहा, ”अजी, गुप्ता जी आपका बेटा अमेरिका में रहता है, अपने बुड्ढ़े बाप को यहाँ अकेला छोड़कर। मेरा बेटा मेरे साथ रहता है। और सबसे बड़ी बात ये है कि यह फोन मेरी बहू ने खरीदा है, बहू ने।“

उसके बाद लुत्ती झा ने अपने सभी दोस्तों के साथ तीन चार सेल्फी ली। फिर उन्होंने उन सभी फोटो को व्हाट्सऐप स्टैटस पर डाल दिया और कैप्शन में लिखा, “फीलिंग हैप्पी विद बुजूम फ्रेंड्स

अब तो लुत्ती झा का रूटीन ही बदल चुका था। सुबह का उठना तो पहले की तरह ही जल्दी होता था और उसके बाद की मॉर्निंग वाक भी होती थी। लेकिन अब चाय के साथ वे अखबार का स्वाद न लेकर ताजा खबरों के लिए न्यूज वाली वेबसाइट देखने लगे थे। उसके बाद स्टैटस पार गुड मॉर्निंग मैसेज भी डालने लगे थे। फिर अपने नाते रिश्तेदारों के साथ वीडियो कॉल में इतने मगन हो जाते थे कि जब तक पार्वती झा की फटकार नहीं पड़ती थी तब तक नहाने के लिए नहीं जाते थे। कई बार थाली में रखा खाना ठंडा हो जाता था और बाकी लोग इंतजार करने की बजाय अपनी अपनी थाली साफ कर चुके होते थे। रात का खाना जल्दी जल्दी निबटाकर वे बिस्तर पर चले जाते थे और फिर वीडियो देखने में मशगूल हो जाते थे। ताजातरीन राजनीतिक हलचल पर एक से एक गरमागरम बहस सुनने में वे इतने तल्ली हो जाते थे कि कब आधी रात हो जाती थी पता ही नहीं चलता था। जब बगल में लेटी पत्नी की बड़बड़ाहट अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती थी तो लुत्ती झा घबड़ाकर मोबाइल बंद करते और फिर सोने की कोशिश करने लगते थे। बेचारे लुत्ती झा।

वह महीना कब बीता और अगला महीना कब शुरु हुआ, लुत्ती झा को पता ही नहीं चला। अगले महीने की दस तारीख को उनकी बेटी, दामाद और नाती उनसे मिलने आए। लुत्ती झा के दामाद का नाम है विनोद जो अपने नाम के अर्थ का पूरा सम्मान करते हैं। उनकी कम्पनी ने सालाना सेल्स क्लोजिंग के लिए दिल्ली में एक मीटिंग रखी है उसी के सिलसिले में उनका आना हुआ था। मीटिंग केवल एक दिन के लिए थी और वह वृहस्पतिवार का दिन था। विनोद ने शुक्रवार की छुट्टी ले ली थी और शनिवार और रविवार को तो वैसे भी छुट्टी होती है। लगता है कि वे अपनी ससुराल में पूरी आवभगत की उम्मीद से आए थे।

वृहस्पतिवार को मीटिंग से छूटने में काफी वक्त लगा और विनोद को लौटने में काफी रात हो चुकी थी। अगले दिन लुत्ती झा विनोद को लेकर पास वाले बाजार गए ताकि दामाद के लिए तीन चार तरह की मछलियाँ खरीद सकें। साथ में मिठाइयाँ भी ली गईं। अब परंपरा के मुताबिक दामाद की अच्छी खातिरदारी करना उनकी और उनके बेटे की जिम्मेदारी बनती थी।

मछली की पकौड़ी तो नाश्ते में ही परोस दी गई। लंच में सरसों वाली ग्रेवी के साथ मछली और उसके साथ सेल्हा चावल की तो जितनी तारीफ की जाए कम है। उसके बाद लुत्ती झा अपने दामाद से गप्पें मारने लगे। थोड़ी ही देर में लुत्ती झा ने विनोद से कहा, “दामाद जी, स्मार्टफोन का मोटा मोटी फंक्शन तो पता चल गया है लेकिन एक बात की जानकारी आपसे पता करनी थी। आपको और नचिकेता को कई बार मैंने अपने अपने फोन से पेमेंट करते देखा है। वो कैसे करते हैं, यह बता देते तो मजा आ जाता।“ 

विनोद ने कहा, “पापाजी, आप कहाँ इन सब चीजों में फँसना चाहते हैं। किसी ने कुछ गड़बड़ कर दिया तो फिर इतने सालों में जो भी बैंक बैलेंस बनाया है सब साफ हो जाएगा।“

लुत्ती झा ने कहा, “ऐसे कैसे साफ हो जाएगा? आप के साथ कभी हुआ? नचिकेता के साथ हुआ? मतलब आपको पूरी दुनिया में मैं ही एक अबोध आदमी दिखता हूँ। अरे दामाद जी, मेहनत की कमाई है। ऐसे कैसे कोई साफ कर देगा।“

विनोद ने अपने ससुर के स्मार्टफोन पर एक पेमेंट एप्प इंस्टाल कर दिया और उन्हें उसे इस्तेमाल करने का तरीका बता दिया। उसके बाद लुत्ती झा ने पूछा, “अब इससे किसी को पेमेंट कैसे करेंगे ये बताइए।“

“जब नीचे किसी दुकान पर चलेंगे तो पता चल जाएगा।“

“अरे नहीं, इससे तो नचिकेता या आपके नम्बर पर भी पैसे ट्रांसफर कर सकते हैं ना। वही कर के बताइए।“

“ठीक है, मैं अपने नम्बर पर पचास रुपए ट्रांसफर करके दिखाता हूँ।“

यह कहकर विनोद ने अपने नम्बर पर पैसे ट्रांसफर करके दिखाया। लुत्ती झा तो ऐसे खुश हो रहे थे जैसे कोई बच्चा तब खुश होता है जब उसे कोई महंगा वाला गेमिंग कंसोल लाकर देता है। लुत्ती झा ने फौरन अपने पोते, पोती और नाती को साथ लिया और लिफ्ट से नीचे उतरने लगे। शॉपिंग आर्केड में जाकर उन्होंने तीनों को आइसक्रीम खरीद दी, बाकी लोगों के लिए आइसक्रीम पैक करवाया और फिर अपने लिए पान के चार पाँच बीड़े बंधवा लिए।

रात में जब नचिकेता ऑफिस से लौटा तो लुत्ती झा ने उससे अपनी नई उपलब्धि के बारे में बताया। यह सुनकर नचिकेता ने कहा, “आप भी पापा, कमाल करते हैं। क्या जरूरत है पेमेंट ऐप्प के चक्कर में पड़ने की। जरूरत की हर चीज तो आपके लिए आ ही जाती है। वैसे भी जीजाजी को आप नहीं जानते हैं। किसी दिन आपका पूरा खाता साफ कर देंगे तो फिर आप क्या करेंगे।“

“खबरदार, जो दामाद जी के लिए ऐसी वैसी बात की। वो हमारे लिए नए थोड़े ही हैं। पंद्रह साल हो गए उनकी शादी को। तुम तो बस उनसे जल भुनकर ऐसा सोचते हो।“

“मोटी रकम देखकर कब किसकी नीयत डोल जाए कौन जानता है।“ लाइए, अपना फोन। जरा चेक तो करूँ कि किसी ने कुछ गड़बड़ तो नहीं की है।

जब नचिकेता ने मैसेज चेक किए तो पाया कि विनोद के नम्बर पर पचास रुपए की जगह पाँच हजार रुपए ट्रांसफर हो चुके थे। नचिकेता ने लुत्ती झा को बताया तो लुत्ती झा ने उसे यह बात किसी को भी बताने से मना किया। कहने लगे कि दामाद की इज्जत बचाने में ही घर की इज्जत बची रहती है।

अगला दिन था शनिवार, यानि वीकेंड। विनोद और नचिकेता शाम में बाजार गए और लौटते समय मटन, मिठाइयाँ, कोल्ड ड्रिंक और व्हिस्की खरीद कर लाए। लौटते ही दोनों एक कमरे में बैठ गए और अपने सामने नमकीन की प्लेटें, सोडा की बोतलें और गिलासें सजा लीं। अपना पेग बनाने के बाद विनोद एक ट्रे में एक गिलास, सोडे की एक बोतल और व्हिस्की का एक क्वार्ट सजाकर दबे पाँव गया और अपने ससुर के सामने रख दिया। दोनों की नजरें मिलीं और दोनों की मुसकान खिल गई।

वापस नचिकेता के कमरे में पहुँचकर विनोद ने उसके साथ चीयर्स किया और दोनों अपनी शाम रंगीन करने लगे। जब दूसरा पेग शुरु हुआ तो नचिकेता ने पूछा, “एक बात पूछूँ जीजाजी? इस बार आपने बहुत महंगा ब्रांड खरीदा है। आप जैसे मक्खीचूस से यह कुछ ज्यादा लग रहा है। इस साल इंसेंटिव में मोटी रकम मिली है? या मोटा बोनस मिला है?”

विनोद ने हँसते हुए कहा, “मोटा बोनस ही समझो। हुआ यूँ कि कल जब मैं पापाजी को पैसे ट्रांसफर करना सिखा रहा था तो मुझे एक शरारत सूझी। मैंने पचास रुपए की जगह पूरे पाँच हजार ट्रांसफर कर दिए। आखिर ओल्ड वार हॉर्स के लिए नया स्मार्टफोन खरीदने पर एक शानदार पार्टी तो बनती है।“

यह सुनकर नचिकेता जोर से हँसा। विनोद भी उसकी हँसी में शामिल हो गया। बाद में जब लुत्ती झा को यह बात पता चली तो वे भी मंद मंद मुसकरा रहे थे।